नेफ्रोटिक सिंड्रोम क्या है ?
नेफ्रोटिक सिन्ड्रोम किडनी की एक आम बीमारी है जो आमतौर पर दो से आठ साल के बच्चों को अधिक प्रभावित करती है। इस बीमारी में पेशाब के माध्यम से शरीर के लिए आवश्यक प्रोटीन निकलने लगता है। इसे बहुत ही साधारण भाषा में ऐसे समझ सकते है कि किडनी शरीर को डिटॉक्स करने के लिए शरीर के विषैले पदार्थों को बाहर निकालने का काम करती है, लेकिन जब किडनी में मौजूद छलनी के छेद बड़े हो जाते है तब किडनी यूरिन के साथ प्रोटीन को भी बाहर निकालने लगती है। जिससे शरीर में प्रोटीन की मात्रा कम हो जाती है और नेफ्रोटिक सिंड्रोम बढ़ने लगता है। जैसे जैसे प्रोटीन बाहर निकलता है वैसे-वैसे कोलेस्ट्रॉल का स्तर हाई होने लगता है और शरीर के विभिन्न हिस्सों में सूजन आने लगती है। नेफ्रोटिक सिंड्रोम की वजह से शरीर में सूजन हो सकती है। सूजन होने के बाद भी किडनी की अनावश्यक पदार्थों को दूर करने की कार्यक्षमता बनी रहती है। इसका सीधा मतलब यह है कि इस रोग से किडनी ख़राब होने की संभावना कम रहती है। पेशाब में जाने वाले प्रोटीन की मात्रा के अनुसार ही रोगी के शरीर में सूजन घटती व बढ़ती रहती है। अगर इस बीमारी का लम्बे समय तक उचित इलाज नहीं किया जाता है तो यह वास्तव में रोगी के लिए गंभीर ख़तरे पैदा कर सकती है।
नेफ्रोटिक सिंड्रोम क्यों होता है ?
आईये जानते है कि आखिर नेफ्रोटिक सिंड्रोम जैसी बीमारी क्यों होती है? दरअसल, वास्तविकता यह है कि अभी तक इस बीमारी के होने का स्पष्ट कारण ज्ञात नहीं है। एक अनुमान के मुताबिक 90 प्रतिशत तक यह बीमारी बच्चों को होती है। जिनमें नेफ्रोटिक सिन्ड्रोम का कोई निश्चित कारण नहीं मिल पाता है। इसे प्राथमिक या इडीयोपैथिक नेफ्रोटिक सिन्ड्रोम भी कहते है। प्राथमिक नेफ्रोटिक सिन्ड्रोम पैथोलाजिकल रोगों के कारण हो सकता है। यह मिनीमल चेन्ज डिजीज, फोकल सेगमेंटल ग्लोमेरुलोस्केलेरोसिस, मेम्ब्रेनस नेफ्रोपैथी और मेम्ब्रेनोप्रोलिफरेटिव ग्लोमेरुली नेफ्रैटिस के कारण हो सकता है।
किडनी के छोटे ब्लड सेल्स को नुकसान पहुंचने की वजह से आमतौर पर नेफ्रोटिक सिंड्रोम की समस्या हो सकती है। इसके अतिरिक्त डायबिटीज से ग्रसित व्यक्ति की किडनी क्षतिग्रस्त हो सकती है। इसे डायबिटीज नेफ्रोपैथी के नाम से जाना जाता है। ल्यूपस के कारण इम्यून सिस्टम प्रभावित होता है। जिससे किडनी को गंभीर नुकसान पहुंच सकता है। हमारे शरीर में अमाइलॉइड प्रोटीन का अधिक निर्माण करने लग जाती है। शरीर में अमाइलॉइड प्रोटीन की अधिकता के कारण यह किडनी के फिल्टर सिस्टम को प्रभावित करने लग जाती है। इसके अलावा भी कई अन्य कारण है जैसे- मिनीपल चेंज डिजीज जो बच्चों में नेफ्रोटिक सिन्ड्रोम का सबसे आम कारण है, फोकल सेगमेंट ग्लोमेरुलोस्केलेरोसिस और झिल्लीदार नेफ्रोपैथी, संक्रमण से या दवाई के साइड इफ़ेक्ट से, कैंसर,आनुवंशिक रोग, एस. एल. ई. और एमाइलॉयडोसिस आदि कारणों से नेफ्रोटिक सिंड्रोम हो सकता है।
नेफ्रोटिक सिन्ड्रोम के मुख्य लक्षण
आमतौर पर नेफ्रोटिक सिन्ड्रोम छोटे बच्चों में अधिक होता है। इस रोग की शुरुआत में बुखार और खांसी होती है। साथ ही साथ आंखों के नीचे एवं चेहरे पर सूजन आने लगती है। इसके बाद धीरे-धीरे मरीज में लक्षण बढ़ने लगते है। सामान्य लक्षण इस प्रकार है।
- ब्लड में एल्ब्यूमिन का स्तर कम हो जाता है।
- पेशाब से प्रोटीन ज्यादा निकलने लगता है।
- वजन तेजी से बढ़ने लगता है।
- थकान अधिक होती है।
- ब्लड में फैट और कोलेस्ट्रॉल का स्तर बढ़ जाता है।
- भूख कम लगती है।
- पेशाब में झाग आते है।
नेफ्रोटिक सिंड्रोम का इलाज
नेफ्रोटिक सिन्ड्रोम का इलाज करने से पहले बच्चे को यदि संक्रमण जैसे सर्दी, बुखार हो तो उसका प्रबंध करने की आवश्यकता होती है। इलाज के दौरान संक्रमण होने से रोग बढ़ सकता है इसलिए ज़रूरी है कि संक्रमण न होने पाए।
नेफ्रोटिक सिन्ड्रोम में लक्षण मुक्त करने के लिए प्रेडनिसोलोन एक मानक इलाज माना जाता है। अधिकांश बच्चों पर इस दवा का अनुकूल प्रभाव पड़ता है। एक से चार हफ्ते में सूजन और पेशाब में प्रोटीन दोनों गायब हो जाते है। पेशाब जब प्रोटीन से मुक्त हो जाये तो उस स्थिति को रेमिषन कहते है। वे बच्चे जिन पर स्टेरॉयड चिकित्सा का अनुकूल प्रभाव नहीं हो पाता उनके पेशाब में प्रोटीन की मात्रा लगातार बढ़ती रहती है। ऐसे में किडनी की आगे की जांच की आवश्यकता होती है। उन्हें लीवामिजोल, साइक्लोफॉस्फेमाइड, साइक्लोस्पोरिन, टैक्रोलीमस, माइकोफिनाइलेट आदि दवाईयां दी जाती है। स्टेरॉयड के साथ-साथ वैकल्पिक दवा भी दी जाती है। जब स्टेरॉयड की मात्रा कम कर दी जाती है तो ये दवा रेमिशन को बनाये रखने में सहायक होती है।
सूजन और पेशाब ज्यादा मात्रा में होने पर डाइयुरेटिक्स दवाईयां दी जाती है। ब्लड प्रेशर पर नियंत्रण रखने और पेशाब में प्रोटीन की मात्रा को कम करने के लिए विशेष दवाईयां जैसे ए. सी. ई. अवरोधक और एंजियोटेंसिन रिसेप्टर अवरोधक दवाईयां दी जाती है। संक्रमण के लिए एंटीबायोटिक दवाईयां बैक्टीरियल सेप्सिस, पेरिटोनाइटिस दी जाती है।
कोलेस्ट्रॉल और ट्राइग्लिसराइड को कम करने के लिए स्टैटिन, सिमवास्टैटिन, एटोरवास्टेटिन, रोस्युवास्टैटिन आदि दवाईयां दी जाती है जो दिल और रक्त वाहिनियों की समस्या के जोखिम को रोक सके। इसके अतिरिक्त कैल्शियम, विटामिन डी और जिंक की दवाईयां भी रोगी को दी जाती है। जब स्टेरॉयड का कोर्स पूरा हो चुका हो तब नियमित रूप से टीकाकरण के साथ-साथ निगरानी और जांच की सलाह दी जाती है।
Dr. Amit Mittal, Head Of the Department and Senior Consultant
Gastroenterology
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